Reading 16:- काबुलीवाला ~ Bioscopewaala !! समीक्षा -Review!!

 


टैगोर और उनकी कहानियाँ- चाहे उन्हें कितनी ही बार पढ़ें , हमेशा नई और एकदम ताज़ा सी लगती है।

" काबुलीवाला" ये कहानी शायद बरसों पहले पढ़ी होगी और शायद , हम सब ने बचपन में पढ़ी हो , पर आज भी इसे पढ़ो, तो अपने ही सादगी में जैसे रंग देती है |

सादगी के साथ ये कहानी - अधूरापन , दर्द और अकेलेपन का एहसास भी करा जाती है।  

सादगी, जो एक नन्ही सी बच्ची की खिलखिलाहट में है।  जो उसकी पुकार में है , जब वह भागती हुई आवाज लगाती है -" काबुलीवाले ,- काबुलीवाले” !

अपने गाँव और अपनों से बिछरने का दर्द , वो दर्द जो  दूर परदेस से आए हुए राही में होती है  , जो अपने घर से दूर , अपनी रोज़ी- रोटी की तलाश में आया है , और एक कागज़ के पन्ने में अपनी नन्ही बिटिया की यादों को समेटे हुआ है। 

वो यादें , जो उस राही को कई मुश्किलों के बाद भी जीने का हौसला देती है।वो अंजान राही , जो "काबुलीवाले , काबुलीवाले" की पुकार में अपनी बिटिया की मिठास पाता हुआ , उसकी ओर खींचा चला आता है , और दिन के दो पल बिताकर , इस अंजान देस में भी खुद को जैसे अपने ही घर में पाता है।

मिनी बेबी और काबुलीवाले की दोस्ती तो बेहद खूबसूरत है।  उनकी गुफ़्तगु, उनकी कहानियाँ , उनकी हँसी-ख़ुशी , जानो जैसे- एक अलग ही दुनिया बसती है, इन दोनों की। दोनों अपनी ही धुन में मशरूफ रहते हैं , अपनी ही कहानियों से खुद को रंगते हैं


वैसे ये यादें भी अजीब ही होती है | जो मिनी बेबी- काबुलीवाला, काबुलीवाला- कहते थकती नहीं थी , उसे , उसके कैद हो जाने पर , उसकी कमी का एहसास होता ही नहीं है , और अपने बचपन से बड़े होने के दौर में , अपने काबुलीवाले को भूल भी चुकी है।

फिर क्या, बस , ये कहानी अपने अंत तक ले जाती है हमें , बस  यूँही, काबुलीवाले की एक अधूरी ख्वाइश के साथ, हमें छोड़ जाती है।


ये कहानी मुझे हमेशा ही अधूरी सी लगती।  चाहे जितनी बार भी पढ़ो , हमेशा यही लगता  कि काबुलीवाले के साथ ऐसा अंत नहीं होना था।  टैगोर से मानो हमेशा मैं सवाल करती - कि क्यों , आपकी कहानियों में अकेलापन , बिछराव, दर्द - ये सब क्यों होता है।  

जब भी मैं इस कहानी को पढ़ कुछ लिखना चाहती , तो मेरी कलम कहीं बीच में ही रुक सी जाती , कभी पूरी ही नहीं होती।

और फिर एक दिन हमारे बॉलीवुड ने लाया ये फिल्म“Bioscopewaala" ये फिल्म इसी " काबुलीवाला" कहानी से प्रेरित है। 

बस फर्क सिर्फ यही है कि जहाँ " काबुलीवाले " की कहानी अधूरी सी लगती है , वही bioscopewaala  की कहानी पूरी सी नजर आती है।  जो शिकायत टैगोर से होती थी, वो जैसे इस Bioscopewaale की कहानी ने दूर कर दिया हो।

Stories, Camera, Reels, ,Movies, Pictures-ये सब जादूगर जैसे लगते है , जो अपनी जादू की छड़ी से एक पल के लिए सब कुछ ही बदल देते हैं।

और फिर ये गाना - आया हो आया , आया Bioscopewaala आया।

ये तो जैसे हमारे काबुलीवाले  की मिनी बेबी, और Bioscopewaala की मिनी बेबी की जान है।  

और शायद  हमारे और आपके  भी दिल को छू जाए |

बस अब सोचना क्या,  क्यों ना थोड़ा सा समय निकालकर हम काबुलीवाला और Bioscopewaala दोनों से ही मिलने चलें। 


A beautiful extract from the story of Kaabuliwaala by Rabindranath Tagore-

"The impression of an ink-smeared hand

Laid flat on paper,

A touch of his own little daughter

That had been always on his heart,

As he had come year after year to Calcutta

To sell his wares in the streets."


कागज़ पर किसी नन्हे हाथ की छाप थी।  फोटो नहीं , रंगों से बना चित्र नहीं , प्यारी बिटिया के हाथ में थोड़ी सी कालिख लगाकर कागज़ के ऊपर उसकी छाप ले ली गयी थी।  अपनी प्यारी बिटिया के हाथ की इसी यादगार को सीने से लगाए रहमत कलकत्ते की सड़कों पर मेवा बेचने आता , मानो उस सुन्दर ,कोमल नन्ही बच्ची के हाथ की छुअन भर उसके ह्रदय में अमृत की धारा बहाती रहती। "

                                                                        रबीन्द्रनाथ टैगोर~



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