Reading 34 :- संघर्ष :- पाठ ७ नोट्स- समझने की प्रक्रिया _
सत्य की ओर बढ़ने के लिए समझ सबसे ज्यादा जरुरी है , फिर प्रयत्न |
समझने की प्रक्रिया -
हमें समझने को क्यूँ कहा जाता है ?
क्यूंकि हमारे पास कुछ धारणाएं हैं , मान्यताएं हैं - जिनको हम सत्य मान पकड़े बैठे हैं |
अगर हमें कहा जा रहा है - समझो - तो इससे सिद्ध होता है - कि हम अपने ही तरह के ज्ञानी हैं | कुज्ञानी |
हम अज्ञानी नहीं है - यानि ज्ञान का अभाव | हमारे पास व्यर्थ का , घातक तरह का ज्ञान होता है | और उस घातक ज्ञान को हम सत्य माने बैठे हैं |
तो जब जब श्रीकृष्ण कहते हैं - समझो , बात को समझो :- वो कह रहे हैं - देखो जो तुमने पकड़ रखा है - वो कितना गलत है | बिना एक तरह का आतंरिक अपमान स्वीकार करे - समझने की प्रक्रिया नहीं हो सकती |
जो पहले समझा था - वो गलत था - आतंरिक अपमान | और ये अपमान अच्छा नहीं लगता - तो भीतर का मैं (अहंकार ) चाल चलता है - और कहता है - "मैं समझ गया " | कहता है - मुझे जो बात कही जा रही है - वो वही बात है , जो मैं पहले से मानता हूँ | तो मैं समझ गया |
जबकि कृष्ण आकर कुछ समझाएंगे - तो बात आतंरिक तल पर चोट देगी , अपमान करेगी और हम वो बर्दाश्त नहीं करना चाहते | तो हम उस बात को तोड़ - मरोर कर वही बना रहने देते हैं - जो पहले से हम मानते आ रहे होते हैं |
कृष्ण के खिलाफ किसी तरह का अमर्यादा हम कर नहीं सकते , तो हम श्लोक लेते हैं और उसका विकृत अर्थ कर देते हैं | और कहेंगे - समझ गया - मैं तो हमेशा से समझे हुए था |
विनम्रता के बिना बोध नहीं हो सकता | समझने की प्रक्रिया हमेशा विनम्रता की होती है |
और विनम्रता हममे होती नहीं | हमें बुरा लगता है कि कोई सिद्ध कर दे कि हम गलत हैं | जबकि हमपर एहसान होता है उसका जो हमें गलत सिद्ध कर दे |
पर हमारे भीतर से विरोध उठता है | हम समझाने वाले को ही चोट पहुंचा देते हैं - जैसे उनकी बात को ही विकृत कर देना , भ्रष्ट कर देना |
जब भी लगे कि कोई नयी बात समझ आ गयी है - तो पूछना है - कौन सी पुरानी बात गलत साबित हुई ?
हम उत्तर में पायेंगे - कि बात तो समझ ली , पर कोई पुरानी बात गलत नहीं साबित हुई | अगर जो नयी बात हम समझ रहे हैं , वो भीतर किसी पुरानी बात को गलत साबित नहीं कर रहा - तो कुछ समझ नहीं आया |
जो नयी बात आ रही है - वो भीतर कचड़े की सफाई करने आ रही है | वास्तविक ज्ञान - पुराने ढाँचे को ध्वस्त करेगा | और वहां चोट लगेगी | बिना चोट खाए - समझना संभव ही नहीं है | अपमान का घूँट पीना होता है |
जिनके लिए बहुत बड़ी बात यही होती है कि कोई हमें कड़वा न बोल दे , कोई बुरा न बोल दे , कोई गलत न बोल दे - उनके लिए सर्वथा असंभव हो जाता है - कुछ भी सीखना |
हम कुछ सीख नहीं सकते अगर जो सीख रहे हैं वो भीतर कुछ तोड़ न रहा हो | पर हम चाहते हैं कि पुराना सब बना रहे और नया भी कुछ मिल जाए | पर ऐसा नहीं होता |
जिसमे ये सत्यनिष्ठा नहीं कि वो अपनी पुरानी व्यर्थतायों को व्यर्थ जाने , इमानदारी से स्वीकारे और साहस से त्यागे - वो नीचले तल पर ही पड़ा रह जाता है - कुछ सीखकर कभी ऊपर नहीं उठ पाता |
हम चाहते हैं - सिखाने वाला हमसे मुस्कुरा कर बात करे | हमसे हमारे अनुसार ही व्यवहार करे | मुझे मेरे तरीके से सिखाओ | ऐसे हम कुछ सीख नहीं सकते |
ये समझने की प्रक्रिया हुई |
फिर जब लगे कि समझ गए तो फिर भीतरी माया से सतर्क रहना है | क्यूंकि माया का पहला उद्देश्य होता है - self preservation | जल्दी ही धोखा दे जाती है कि बात समझ आ गयी - समझदार हो गए | तो जल्दी ही विश्वास दिला देना चाहती है कि समझ गए |
तो फिर जांचना है - समझे या नहीं | और वो होगा प्रयोग करने से | और देखो जो समझ रहे हो - उसका प्रयोग कुछ हो रहा है या नहीं | वास्तविक जीवन जटिल होती है | अगर हमारी समझ इन सब जटिलतायों के बीच , समाधान पहुँचाने में मदद कर रहा है - तो समझ आ रही है बात |
जो समझ रहे है - वो अगर जीवन में प्रयोग नहीं कर पा रहे - तो कुछ नहीं समझा |
देखो -
१) जांचना है - चोट लगी की नहीं , कुछ भीतर टूटा या नहीं |
२) जो कह रहे हैं - समझ गए - वो जीवन में प्रयोग कर पा रहे हैं या नही |
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