Reading 32 :- संघर्ष :- पाठ ७ नोट्स- अपनी योग्यता जाननी हो , तो अपनी हस्ती की परीक्षा लो |

 


पात्रता का निर्धारण कैसे हो ?

पात्रता के निर्धारण का अर्थ है , विवेकपूर्ण भेद कर पाना |

क्या भेद कर पाना कि कौन सुपात्र है और कौन कुपात्र है |

परीक्षार्थी को उसको उसकी सामान्य स्थिति से भिन्न कोई स्थिति देनी पड़ेगी |

अगर हम पुस्तकें वितरित करने गए हैं , तो वहां अपने ही व्यक्तित्व का परीक्षा पत्र होना पड़ेगा |

स्टाल को , स्वयंसेवक को , हस्ती को , पर्सनालिटी को एक चुनौती की तरह होना होगा |

हमारी हस्ती में कुछ ऐसी बात हो कि कोई खींचे हमारी ओर |

लेने वाला किताब नहीं , तुमसे तुम्हे लेता है |

हम जैसे हैं , उसी अनुसार वो किताब के भी महत्त्व का , और गहराई का निर्धारण कर लेता है |

तुम्हारी शक्ल को किताब का सार होना चाहिए |

चेहरे पर पुस्तक का अर्थ छपा होना चाहिए |

आँखों में पुस्तक का प्रकाश होना चाहिए |

तब जो आएगा , वो समझ जाएगा कि अगर देनेवाला ऐसा है , तो देय वस्तु भी अच्छी ही होगी |

अध्यात्मिक स्वयंसेवक को कभी अपनी पहचान छुपानी नहीं चाहिए | अगर हम खुद को जनता जैसा ही प्रदर्शित करने लग गए , तो जनता की परीक्षा कैसे होगी ?

हम अपनेआप को छुपा लेंगे , तो पता कैसे चलेगा कि लोग कैसे हैं ; लोग तो वैसे ही घूम रहे हैं जैसा होने की उनको शिक्षा दी गयी है , जैसे वो संस्कारित हैं |

जनता के बीच , जनता जैसा ही आचरण क्यूँ करना है ? अलग होंगे , तभी तो दुनिया चौंकेगी और पता चलेगा कि कौन कैसा है ?

संतों ने कहा – अब अन्दर से जैसे हो गए हैं , बाहर भी उस बात को छुपायेंगे नहीं |

जब भीतर से ही अब हम रंगीले राजा नहीं रहे , तो बाहर हम क्या आम लोगों की तरह पचास रंगों का प्रदर्शन करें ?

हम एक रंग , दो रंग में अब तृप्त हैं | कोई भी रंग हो सकता है |

अध्यात्मिक पथ पर जो आदमी लगा है , वो बड़ी से बड़ी भूल ये कर सकता है कि वो कहे कि मैं तो आम लोगों जैसा ही दिखूंगा , क्यूंकि आम लोगों जैसा दिखने में , भीड़ का हिस्सा होने में सुरक्षा लगती है |

उदाहरण – मैं जब बाजार में रहूँगा , तो मैं ऐसे कपड़े पहन लूँगा ; जब दफ्तर में तो बिलकुल दफ्तर जैसा कपड़ा और जब अध्यात्मिक सत्र में तो बिलकुल सफ़ेद आदि |

इसकी सजा भी मिलती है |

घरवालों को लगेगा कि आप तो बिलकुल घर वालों के जैसे हो | शादी व्याह , पार्टी आदि में उसी माहौल जैसा हो जाते हैं | तो जब उन्हें पता चलता है कि हम अध्यात्म से जुड़े हैं , तो बिलकुल चौंक जाते हैं | न पूरी तरह से घर के होते हैं फिर , न पूरी तरह से राम के होते हैं |

भीड़ को बदलने की तमन्ना ही छोड़ दो , अगर तुम्हे भीड़ से डर लगता है और भीड़ में घुसकर भीड़ जैसे ही हो जाते हो |

अपना असली भेद जो है दूसरों की तुलना में , इसको जाहिर होने दो |

जब तुम्हारा ह्रदय गीता की ओर आकर्षित हो ही रहा है , तो अपने व्यक्तित्व में भी थोड़ा कृष्ण को उभरने दो न |

नहीं तो ये कैसा प्रेम है तुम्हारा कृष्ण के लिए कि दिल ही दिल में है और जबान पर कभी नहीं आता , चेहरे पर नहीं आता , बोलचाल में नहीं आता |

दुनिया भी क़द्र तभी करेगी जब तुम अपने प्रेम को , अपनी असलियत को जाहिर करने की हिम्मत दिखाओ |

सबसे ज्यादा डरे तो हम अपने स्वजनों और मित्रों से हैं |

जो तुम हो , वो दिखाओ ; उसके बाद सही लोग अपने आप तुम्हारे पास आयेंगे | और व्यर्थ के लोग अपने आप दूर हो जाएंगे |

हम कहते हैं – संसार जैसा भी बने रहना है , संसार में भी लिप्त रहना है और भीतर ही भीतर अध्यात्मिक भी रहना है |

छुपाना नहीं है क्यूंकि बहुत हैं जो खोज रहे हैं किसी असली आदमी को |

अब असली आदमी को शर्म आती है, अपने असली होने पर , तो वो बाहर नकली नकाब ओढ़े रहता है |

तो कोई ढूंढने आये भी , तो वो पहचानेगा कैसे ?

तुम खुलोगे नहीं तो यही सब नकली आते रहेंगे |

अध्यात्म सिर्फ आतंरिक मौन का नाम नहीं है , बाहरी तल पर शेर की गर्जना भी है |

जीवन में कोई मौन नहीं , सिर्फ ह्रदय में मौन |

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