मैं भावना हूँ ~



मैं भावना हूँ: एक प्रवाह,

बहती नदी की धार की तरह,

इस शरीर में बहती हूँ,

प्रकृति की हूँ, प्रकृति में हूँ 

तुम जो बूझो मुझको

तो प्रकृति के पार जाने का जरिया हूँ 

ना समझो, तो माया का: चक्रव्यूह हूँ ||

 

मैं आज की कोई नई खोज नहीं

सदियों पुराना रिश्ता है मेरा, मानव से, तुमसे 

जंगलों जितना पुराना,

तुम्हें लगता है, ये जो मेरी भावना है, 

बड़ी पवित्र और मासूम है,

कुछ खट्टी - कुछ मीठी,

कुछ किलकारी भरी,

तो कुछ आंखों में मोती सा चमकती हुई, 

कुछ निर्भरता का जिक्र है,

तो कुछ खामोशी में कहीं अनकही बातें।

कुछ दूरियों में मिलन की तड़प है,

तो कुछ नजदीकियों में जन्म-जन्मान्तर का संग ||

 

ऐसे ही बनते हैं ना, तुम्हारे सारे रिश्ते ? 

ऐसे ही बूनते हो ना,

तुम अपनी काल्पनिक कहानियाँ ?

ऐसे ही लगता है ना,

आज तो कुछ नया हो गया ? 

भाव विभोर, हो चले तुम तो।|

 

हंसी आ रही है मुझे तुमपर,

पता है क्यों?

तुम इसी "मैं, मेरी भावना"

के खेल में फंस चुके हो,

मेरी ही माया जाल के गुलाम बन चुके हो |

 

अब तुम कराहोगे,

याद है, वो चिट्ठियों में की गयी बातें?

याद है, वो काली चांदनी रात में,

कागज़ पर नीले रंग से लिखे वो अल्फाज

वो गीत और कवितायों का संग्रह?

लगता था ना, कि पूरा ह्रदय ही लिख डाला है?

याद है ना?

जो रिश्ते तुम्हें कभी नए और आनंदमयी प्रतीत हो रहे थे,

जो कभी सदाबहार, नित्य मालुम पड़ते थे,

जिनके संग रहने का ख्वाब बुना करते थे,

आज तुम्हारी बेड़ियाँ हैं। 


मैं वो यादें, वो स्मृतियाँ बन,

तुम्हारे पास बिना निमंत्रण चली आती हूँ। 

तुम्हें भीतर ही भीतर बेचैन देख, तड़पता देख,

अरसों पुरानी यादों में मायूस देख,

दया सी आती है। 

हालत देखी है अपनी?

याद आता है जंगल का

वो तड़पता, मचलता गिरगिरता जानवर? 

हाँ, वही जंगल का जानवर।

बोला था ना, कुछ नया नहीं है।

फंस गए ना, प्रकृति के शारीरिक खेल में |

 

बाहर निकलना है ??

तो खुद को शरीर नहीं,

चेतना जानो 

मुझमें बहना नहीं,

मुझे नाव बना, 

प्रकृति से पार तैरना जानो 

समन्दर में लहरें, तो अब भी उठेगीं 

मुझे निर्ममता बना,

उन लहरों से खेलना जानो ||

 

तुम्हें किसने मुझे दबाने को बोला है? 

किसने तुम्हें पत्थर बनने को बोला है?

किसने तुम्हें भावनाहीन बनने को बोला है?

तुम बस जानो तो सही,

कि आकाश हो तुम,

एक चुनाव बस हो, जो सत्य तुम्हारा

मैं प्रेम बन हाथ जो थामूँ तुम्हारा

फिर वो संग छूटेगा नहीं

तुम्हारी हर सांस में

प्रेम की माला बन, बसूंगी मैं ही

फिर होगा कुछ नया,

जब होगा भावना और चेतना का मिलन |

बोलो चुनाव करोगे?

क्या अब मुझसे यारी करोगे?

 

मैं भावना हूँ ||

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