मेरे ‘मैं का मोहल्ला’!

एक मोहल्ला मेरा भी है जिसकी नीव ही डर और असुरक्षा है डर, असुरक्षा; हाँ, रिश्ता गहरा है यहाँ  पल-पल अपनी वृत्तियों को  हावी होता देखती हूँ,  उन  बंधनों को तोड़ने के बजाय  उनसे भीतर ही भीतर लड़ बैठती हूँ,  कभी आलस, कभी चिंता कभी ग्लानी तो कभी गुस्सा  कभी बक बक करता हुआ बोलता ये मन, कभी झूठी आशा, तो कभी ख़ुद से वो किये गए सतही सुधार हेतु संकल्प 

एक चक्र है जो ये मैरी गो राउंड का झूला जो है ये  प्रतीत होता है, जैसे हवा में झूल  रही हूँ  सच तो ये हैं, इस चक्र में बस जकरी हुई हूँ || 

इस बस्ती में पड़ोसन भी है रिश्ते जो कर्मकाण्ड में मधहोश पड़े हैं, क्या करें क्या न करें.; जो है आधार इनका कृष्ण के ‘कर्ता’ से जो बेहद दूर खड़े हैं, हंसती हूँ खुद पर अज्ञानता ने  शिकार जो किया इसी बस्ती में अपना मोहल्ला  बसाने का चुनाव जो मैंने किया

सोचती हूँ , कभी यूँही जब आएगी, वो  आखिरी घड़ी  लूंगी जब मैं अंतिम सांस तो क्या सुकून से आंखे मूंद पाऊँगी? या फिर ये रिश्तेदार, समाज उस वक्त भी सर पर जंजीरें ले खड़े रहेगें ? उस वक्त भी अपने कर्म-काण्ड, रिति-रिवाज़ थोपेंगे? वही बने-बनाए ढरें हैं मेरे  अबाऊ और बोरियत के क्यों उँगली उठाऊँ मैं इनपर  जब हूँ, इसकी मैं स्वयं जिम्मेदार।

एक चाहत तो है
पी के रंग में रंगने का 
उस निर्गुण  निराकार
की आशिकी में बौरा होने का 
खरगोश-शिशु जैसा
भीतर खाली होने का
अपने पूर्ण स्वभाव से मिलन का
पर ये दिल्लगी, चाहत ही रह जाती है
अनुशासन के दर्द भरे अंगारों पर, 
चलती जो नहीं
जिसकी चाह है, उससे वफा निभाती जो नहीं,
बेवफाई में पी.एच.डी. जो करी है मैंने
यहाँ हर पल शरीर और बंधन 
का चुनाव जो किया है मैंनें 
पी से मिलन की आस
अधूरी  न रह जाए कहीं
डरती हूँ, अपने बंधनों को
जो काट न पाऊँ इस जीवन में कभी |

बंधन और अधीनता इन्हें तोड़ दे, भागने का मन करता है, खुले आसमान में,  ऊँची उड़ान भरने  का मन करता है, डर को  बाजू रख, बेखौफ जीना है पर ये चाहत,  चाहत ही न रह जाए कहीं, बंधन और सत्य के चुनाव में  अपने बंधन ही चुनती न रह जाऊँ यूंही, डर और सुरक्षा की दौड़ ही भागती रह न जाऊं यूँही ||

ये  मेरे 'मैं का  मोहल्ला है' जिसकी नीव ही डर और असुरक्षा है ||




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