Reading1:- पुस्तक प्रकृति पाठ १ – बन्दर , केला , बंदरिया :- सारांश



प्रकृति - आचार्य प्रशांत

 प्रकृति से थोड़ा आगे निकलना –

क्या शरीर के अनुरूप चलना यानी कि शरीर की मांगों को पूरी करना – प्रकृति का विरोध करना है ??

दो अलग अलग बातें हैं –

-    १) प्रकृति का विरोध करना

-    २) प्रकृति से थोड़ा आगे निकलना

हम मानव इतिहास को देखें , तो हम पायेंगे कि हम जंगल से बाहर आयें हें |

हमने आग का आविष्कार किया , खेती शुरू की और शहर एवं गाँव बसाया है , भाषा का आविष्कार किया है , विज्ञान के जरिये अंतरिक्ष की खोज शुरू की है , बिमारियों से लड़ने के लिए तरह तरह की दवाइयां विकसित की हैं , सुख सुविधा के संसाधन जोड़े है आदि आदि –

तो ये सारी प्रतिक्रियाँ इस बात का प्रमाण है कि हममें कुछ ऐसा है जो प्रकृति में सिमित नहीं रहना चाहता | प्रकृति में सिमित रहने का मतलब हम सिर्फ जंगल में बसाये घर , फल , शिकार से संतुष्ट नहीं होते है , जबकि हर वक़्त प्रकृति से आगे निकलना चाहते हैं | हम प्रकृति के बीच , प्रकृति में खुद को सिमित होने का एहसास करते हैं |

तो जिस तरह मानव जनजाति हमेशा प्रकृति से आगे बढ़ना चाहता है , उसी तरह जब हम कहते है कि हमारे शरीर की जो मांगे हैं – जैसे आकर्षण, वासना , नींद , आदि आदि इनसे आगे बढ़ना है , ना कि इनमे लिप्त हो जाना है – वो ऐसा ही है जैसे प्रकृति से आगे बढ़ना |

हम अकसर ये समझ बैठते हैं कि शारीरीक प्रतिक्रियाओं के अनुरूप ना चलना प्रकृति का विरोध करना है , जबकि ये प्रकृति से आगे बढ़ना है | अगर हमें पूर्णता का एहसास किसी दुसरे शरीर से जाकर मिलने में ही हो जाता , तो हमें जंगल से बाहर आने की आवश्यकता ही क्यूँ हुई ? हम ये तो जंगल में रहकर ही कर सकते थे |

अगर हमें प्रकृति के अनुरूप ही चलना था , तो जंगल छोड़ना ही नहीं था | अपना घर पेड़ के ऊपर बनाना था , जैसे बन्दर रहते हैं | जंगल से बाहर आने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी | 

प्रकृति का विरोध करना जैसे प्रकृति का नाश करना | जैसे हम अपने भोग , अपनी कामनायों को पूर्ति करने के लिए – जंगल काट देते हैं , जानवरों को मार देते हैं , पृथ्वी पर बेहिसाब कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं आदि आदि – ये है प्रकृति का विरोध |

 

हमें किसकी तलाश है ?

जरुरी है कि हम देखें कि हमें चाहिए क्या ? अगर प्रकृति में जो सहज है , सुलभ है उसको जान लिया , समझ लिया तो वो जरुर ही मिल सकता है जो हम चाहते हैं |

हम कुछ तलाश कर रहे हैं और उस तलाश हेतु ही हम जंगल से बाहर शहर में आये , हमने सभ्यता , संस्कृति , भाषा – इन सब का अविष्कार किया | हमें सोचना होगा कि हमें इनकी जरुरत क्यूँ पड़ी ?

हम विचार करते हैं , हमें ये सवाल करना होगा कि हम विचार क्यूँ करते हैं ?

क्यूंकि हम जिसकी भी तलाश में है , वो हमें सभ्य होने से , या शहर बसा लेने से , या विज्ञान में आविष्कार द्वारा आदि आदि माध्यम से मिला तो नहीं ही है |

जंगल से शहर को बस जाना जैसे एक प्रकृति को छोड़कर , दुसरे प्रकृति में बस जाना |

 

तो हमें पता कैसे चलेगा , कि हमें क्या चाहिए ?

प्रकृति के अवलोकन से , पता चलेगा |

आस पास के लोगों की जिंदगी को देखना , नदी के बहाव को देखना , सूरज के उदय अस्त को देखना आदि आदि हर पल अवलोकन के माध्यम से संभव है कि हमें वो मिल जाए , जो हमें चाहिए |


प्रकृति  के तल पर ही – यानी प्रकृति की मांगो को पूरा करने में क्या दिक्कत है ?

जब भी कोई गुरु या आचार्य हमें शरीर की मांगों को – यानी वासना , सम्बन्ध , अँधा भोग आदि आदि को विरोध करने को कहते हैं , तो एक चोट लगती है – कि क्यूँ मना कर रहे हैं ? ये प्रकृति ही तो है , प्रकृति में भी होता है ये सब |

शरीर की मांगो को पूरा करने में क्या दिक्कत है ?

दिक्कत ये है कि हम फिर जानवर के ही तल पर रह गए ना , जबकि हमारा स्वाभाव प्रकृति से बढ़कर है |

शेर अगर मांस खाता है , तो वो शेर ही रह गया ना – वो सोच विचार , समझ कहाँ पाता है ?

ये तर्क देना कि ये सब तो प्रकृति में भी होता है , तो हम भी करेंगे – ये मुर्खता है |


हमारा स्वभाव क्या है ?

हम अकसर अपने जीवन में ये सुनते हैं कि “ मै ऐसा ही हूँ | यही मेरी प्रकृति है |“

उदाहरण के तौर पर –

मुझे गुस्सा आता है क्यूंकि ये मेरी प्रकृति है |

विपरीत लिंग की तरफ खिंचाव ये तो नेचुरल है |

आदि आदि |

यहाँ समझना होगा कि एक शेर या कुत्ता का केंद्र प्रकृति है | मतलब अगर वो मांस खा रहे हैं , ये उनकी प्रकृति है , नेचुरल है |

पर हमारा केंद्र आत्मा है , प्रकृति नहीं | केंद्र यानी की स्वभाव |

उदाहरण के तौर पर देखें तो –

हम दांत मांजते हैं , प्रकृति में कौन ऐसे जानवर है , जो दांत मांजता है ?

हम अपने नाख़ून काटते हैं , प्रकृति में भी शेर क्या नाख़ून काटते हैं ?

हम मल त्याग कर , पानी से धोते हैं ; प्रकृति में कोई जानवर ऐसा नहीं करता ?

तो फिर हम ये कैसे कह सकते हैं , कि हमारा स्वभाव प्रकृति है ? हम प्रकृति से परे उठकर आत्मा है |

तो आशय यह है की हमें प्रकृति से संतुष्टि नहीं मिलनी है , ना ही प्रकृति को भोगकर या प्रकृति का विरोध कर |

हाँ पर हमें जो चाहिए , उसे पाने में प्रकृति हमारी सहायक हो सकती है अगर हम उसका सदुपयोग करें |

और प्रकृति का अवलोकन करना ही , प्रकृति का सदुपयोग है |

प्रकृति के बहाव को , उसके नृत्य को हर वक़्त अवलोकन करो , जानो , समझो |

 

अगर कोई प्रकृति के तल पर ही जीना चाहे , तो उनपर कोई दवाब है , ऊपर उठने का ?

बिलकुल भी नहीं |

हमें जानवरों की तरह जीना है , या अपने पूर्ण रूप को पाना है – ये पूरी तरह से हमारा चुनाव है |

ऊपर भी वही पहुँच पाते है जो ईमानदार होते है , कीमत चुकाने को तैयार होते हैं और उनमे एक जिज्ञासा , इच्छा है कि अपने शुद्धतम रूप को पाना है – सिर्फ वही ऊपर उठ पाते हैं |

हम बिलकुल एक बंदर की भांति केले को या फिर बंदरिया को चुन सकते हैं | कोई जबरदस्ती नहीं है |

हमारा हर पल चुनाव है |


प्राकृतिक सुख क्या होते हैं ?

हम प्रकृति के सुख को एक जानवर के जीवन को देखकर समझ सकते हैं –

सामन्यतः एक जानवर की प्रकृति क्या होती है ?

खाना , सम्भोग करना , सोना , अपने अड्डे पर दूसरे को न आने देना |- ये प्राकृतिक सुख होते हैं |


तो जो प्रकृति के परे का सुख है , वो क्या है ?

वो आनंद अपने आप मिल जाता है | जैसे हम अभी इस पाठ को पढ़ रहे हैं , अगर ध्यान से पढ़े , समझें तो इस प्रतिक्रिया में ही वो आनंद हमें मिल गयी |

इस पाठ को पढने में कोई प्राकृतिक सुख जो ऊपर लिखे है , वो तो नहीं मिल रहा , तो जो सुख मिल रहा है वही प्रकृति से परे का सुख है |


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