Reading 4:- पुस्तक प्रकृति :- पाठ ३ - जब तक है कर्ताभाव , तब तक है दासता |:- नोट्स


 तीन तरह के मालिक :-

१) पहला मालिक शरीर जो बोलता है तुम देह हो |

२) दूसरा मालिक समाज जो बोलता है - तुम नाम हो , ये धर्म हो , कुल हो , खानदान हो आदि आदि |

३) तीसरा मालिक संयोग जो बोलता है :- तुम्हारी आर्थिक स्थिति , तुम्हारी शिक्षा , गरीब घर में जन्म आदि आदि |


इन सब से परे श्री कृष्ण बोलते है - तुम इन तीनों में से कुछ भी नहीं हो , "तुम वो हो " (Thou Art That); तत्त्वमसि  |

- "अहम् ब्रह्मास्मि " - ये  वेदांत का सबसे प्रसिद्ध महावाक्य है  पर ये बोलने का अधिकार सिर्फ उसको है जो दूसरे को ये जता पाए कि तत्त्वमसि  || 

"अहम् ब्रह्मास्मि " रावण  भी बोल लेता था लेकिन तत्त्वमसि  नहीं बोलता था रावण |

तत्त्वमसि  शब्द गीता में कहीं नहीं लिखा मिलेगा , पर श्रीकृष्ण अर्जुन को यही संकेत कर रहे हैं |

पाठ में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय तीन , श्लोक २७ (27) के बारे में चर्चा की गयी है -

श्लोक कुछ इस प्रकार है -

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश: |
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते  |३.२7||

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प्रकृति के गुणों से जो क्रियाएं हैं , उन्हीं से सारे  कर्म हैं ||

अहंकारविमूढात्मा :- 

अहंकार + विमूढ (पागल ) + आत्मा 

यहाँ समझने की बात यह है कि आत्मा = सत्य ; और सत्य के लिए कोई विशेषण या उसकी विशेषता नहीं है ; आत्मा का कोई नाम नहीं , कुछ भी नहीं जोड़ा जा सकता है |

 तो यहाँ आत्मा के लिए विमूढ़ शब्द का प्रयोग बताता है कि बात आत्मा की नहीं हो रही है , बल्कि अहंकार की हो रही है | क्यूंकि आत्मा विमूढ़ (वेवकूफ )  तो नहीं हो सकती | 


अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ||

अहंकार + विमूढ (पागल ) + आत्मा 

कर्ता + अहम् + इति 

मन्यते

अहंकार मानता है कि " मैं कर्ता हूँ " ||

"सारा खेल प्रकृति का चल रहा है , पर  अहंकार  मानता है , मैं कर्ता हूँ  |"


श्री कृष्ण  अर्जुन को क्या  समझा रहे हैं , इस श्लोक के माध्यम से :-

खुद को कर्ता मानना बंद कर दो , जहाँ तुम व्यर्थ ही अपने आप को कर्ता माने बैठे हो | 

कर्ता न मानने से दो प्रमुख चीजें हटती हैं , जीवन में से :-

१) भोक्ता :- अगर कर्ता नहीं , तो भोक्ता नहीं |

२) कर्तव्य :-  कर्ता नहीं , तो कर्तव्य या जिम्मेदारी नहीं |  

इसका मतलब ये नहीं कि गीता हमें गैर - जिम्मेदार होना बता रही है ; ये श्लोक हमें उन कर्तव्यों से उलझने से मना कर रहा है , जो हमारे नहीं है |


जैसे हमारा शरीर अगर हममे कोई अनिवार्यता डालता है , कोई जरुरी नहीं कि हम उसकी बात माने ही |

शरीर  क्या ? मानव शरीर बनाम पशु शरीर 


शरीर की इन्द्रियाँ :-
सोर्स :- quora


पशुयों के शरीर का अर्थ :- उनकी कर्मेन्द्रियाँ और कुछ हद तक उनकी ज्ञान्नेद्रियाँ |

पर मनुष्य के शरीर का अर्थ मन क्यूंकि दस इन्द्रियों (पांच कर्मेन्द्रियाँ और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ) के अलावा मन सबसे आवश्यक इन्द्रिय होती है |

मनुष्य का मन उठता है उसके मस्तिष्क से | 

मानव का मस्तिष्क ही उसमे कामनाएं , महत्वाकांक्षा डालता है , जो पशुयों में कभी नहीं आती ||

तो इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं :- उन कामनायों को मानना आवश्यक नहीं है , वो बस शरीर का आदेश है |

जैसे शरीर बोल रहा है , खाना खा लो - ये शरीर का आदेश है और हम बोल सकते हैं :- मैं खाना नहीं खाऊँगी | इसे समझना आसान होता है |

पर इसी तरह हमारे अन्दर कामना आती है , जैसे मुझे ज्ञानी बनना है , नयी गाड़ी  लेनी है ; नए कपड़े लेने हैं आदि आदि |

हमारे अन्दर कामना उठती है , मस्तिष्क में और हम उसे पूर्ति करने को निकल पड़ते हैं , बाहर |

तो  ये मालिक बना बैठा शरीर का खेल है :- कुछ करो , कुछ करो और हम कुछ ना कुछ करते रहते हैं , शरीर के आदेश के अनुसार |

ये जरुरी है कि हम जोड़ से चिल्लाकर खुद से पूछें कि मुझको मिला क्या ? ये चिल्लाने की विधि है | " तूझे क्या मिला ? " 

मालिक

आदेश

पूछो

 

 

 

शरीर

पेट भरा था , पर सामने दोस्त ने चाट लाया और खा लिया ; और सारी रात गैस , बेचैनी

तुझे क्या मिला ?

 

 

 

 

दोस्त का आना :- संयोग (एक मालिक )

 

 

 

 

 

शरीर ( दूसरा मालिक ); उसका काम है लहर मारना , शरीर का गुण है ||

उसके आदेश को मानकर –

 

तुझे क्या मिला ?

 

 

 

संयोग (जिसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता )

पढ़ते वक़्त फोन का बजना , किसी मेहमान का आना ; कुछ भी संयोगवश जो हमारे ध्यान को भटकाए |

तो ये संयोग का गुण है | हम संयोग को दोषी नहीं ठहरा सकते |

हमने संयोग के आदेश को मान लिया – पूछो

 

तुझे क्या मिला ?                                                                            

 

 

 

समाज

जाति नाम देखकर विवाह करना और हमारे रिश्ते का आधार जाति निर्धारित करती है |

हमने समाज के आदेश को मान लिया – पूछो

 तुझे क्या मिला ?                          



खरगोश ने दांत काँटा , ये ख़रगोश का गुण है | हमें शिकायत करने का कोई अधिकार नहीं | खरगोश अपने गुण पर चल रहा है , हम क्यूँ चल पड़े उसके गुण पर ||

हमारी समस्या और दुःख क्या है ?

अगर हम ऊपर लिखे उदाहरणों को समझें , तो जानेंगे कि संयोग का , समाज का, शरीर का - सबका अपना गुण है और हम उनके आदेशों के पीछे , बस चल देते हैं यानी खुद को समर्पित कर देते हैं | ये एक निचले दर का समर्पण है | 

और हमारी समस्या ये है कि हम मानते हैं कि ये हमने किया और यही दुःख है | 

जहाँ सिर्फ मालिक ही मालिक हैं , वहां ये नौकर मानकर के बैठा है कि हम भी तो कुछ हैं और यही दुःख है |


समर्पण यानी surrender माने क्या ?

प्रचलित है कि सिर का झुकाना सरेंडर होता है | मंदिर जाकर , भगवान् की मूर्ति के आगे आदि आदि | 

सिर माने अहम् | कहते हैं , अहम् को जाकर समर्पित कर दो |

अब अहम् तो कुछ होता ही नहीं , तो समर्पित क्या करेंगें ? 

पर जो गलत जगह समर्पित है , वो अहम् कहलाता है | तो समर्पण मतलब , जहाँ जहाँ समर्पण करे बैठे हैं , वहां समर्पण करने से बाज आना |

तो हमने ऊपर देखा कि कैसे हम प्रकृति के (संयोग , समाज , शरीर ) इन तीनो गुणों के आदेशों पर चल देते हैं , यानि कि समर्पण कर देते हैं ; तो गलत जगह इन तीन के सामने सिर झुकाने से बाज आना ही समर्पण/ सरेंडर  है | |


धनयवाद ||










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