तीन तरह के मालिक :-
१) पहला मालिक शरीर जो बोलता है तुम देह हो |
२) दूसरा मालिक समाज जो बोलता है - तुम नाम हो , ये धर्म हो , कुल हो , खानदान हो आदि आदि |
३) तीसरा मालिक संयोग जो बोलता है :- तुम्हारी आर्थिक स्थिति , तुम्हारी शिक्षा , गरीब घर में जन्म आदि आदि |
इन सब से परे श्री कृष्ण बोलते है - तुम इन तीनों में से कुछ भी नहीं हो , "तुम वो हो " (Thou Art That); तत्त्वमसि |
- "अहम् ब्रह्मास्मि " - ये वेदांत का सबसे प्रसिद्ध महावाक्य है पर ये बोलने का अधिकार सिर्फ उसको है जो दूसरे को ये जता पाए कि तत्त्वमसि ||
"अहम् ब्रह्मास्मि " रावण भी बोल लेता था लेकिन तत्त्वमसि नहीं बोलता था रावण |
तत्त्वमसि शब्द गीता में कहीं नहीं लिखा मिलेगा , पर श्रीकृष्ण अर्जुन को यही संकेत कर रहे हैं |
पाठ में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय तीन , श्लोक २७ (27) के बारे में चर्चा की गयी है -
श्लोक कुछ इस प्रकार है -
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश: |
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते |३.२7||
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प्रकृति के गुणों से जो क्रियाएं हैं , उन्हीं से सारे कर्म हैं ||
अहंकारविमूढात्मा :-
अहंकार + विमूढ (पागल ) + आत्मा
यहाँ समझने की बात यह है कि आत्मा = सत्य ; और सत्य के लिए कोई विशेषण या उसकी विशेषता नहीं है ; आत्मा का कोई नाम नहीं , कुछ भी नहीं जोड़ा जा सकता है |
तो यहाँ आत्मा के लिए विमूढ़ शब्द का प्रयोग बताता है कि बात आत्मा की नहीं हो रही है , बल्कि अहंकार की हो रही है | क्यूंकि आत्मा विमूढ़ (वेवकूफ ) तो नहीं हो सकती |
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ||
अहंकार + विमूढ (पागल ) + आत्मा
कर्ता + अहम् + इति
मन्यते
अहंकार मानता है कि " मैं कर्ता हूँ " ||
"सारा खेल प्रकृति का चल रहा है , पर अहंकार मानता है , मैं कर्ता हूँ |"
श्री कृष्ण अर्जुन को क्या समझा रहे हैं , इस श्लोक के माध्यम से :-
खुद को कर्ता मानना बंद कर दो , जहाँ तुम व्यर्थ ही अपने आप को कर्ता माने बैठे हो |
कर्ता न मानने से दो प्रमुख चीजें हटती हैं , जीवन में से :-
१) भोक्ता :- अगर कर्ता नहीं , तो भोक्ता नहीं |
२) कर्तव्य :- कर्ता नहीं , तो कर्तव्य या जिम्मेदारी नहीं |
इसका मतलब ये नहीं कि गीता हमें गैर - जिम्मेदार होना बता रही है ; ये श्लोक हमें उन कर्तव्यों से उलझने से मना कर रहा है , जो हमारे नहीं है |
जैसे हमारा शरीर अगर हममे कोई अनिवार्यता डालता है , कोई जरुरी नहीं कि हम उसकी बात माने ही |
शरीर क्या ? मानव शरीर बनाम पशु शरीर
शरीर की इन्द्रियाँ :-
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सोर्स :- quora |
पशुयों के शरीर का अर्थ :- उनकी कर्मेन्द्रियाँ और कुछ हद तक उनकी ज्ञान्नेद्रियाँ |
पर मनुष्य के शरीर का अर्थ मन क्यूंकि दस इन्द्रियों (पांच कर्मेन्द्रियाँ और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ) के अलावा मन सबसे आवश्यक इन्द्रिय होती है |
मनुष्य का मन उठता है उसके मस्तिष्क से |
मानव का मस्तिष्क ही उसमे कामनाएं , महत्वाकांक्षा डालता है , जो पशुयों में कभी नहीं आती ||
तो इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं :- उन कामनायों को मानना आवश्यक नहीं है , वो बस शरीर का आदेश है |
जैसे शरीर बोल रहा है , खाना खा लो - ये शरीर का आदेश है और हम बोल सकते हैं :- मैं खाना नहीं खाऊँगी | इसे समझना आसान होता है |
पर इसी तरह हमारे अन्दर कामना आती है , जैसे मुझे ज्ञानी बनना है , नयी गाड़ी लेनी है ; नए कपड़े लेने हैं आदि आदि |
हमारे अन्दर कामना उठती है , मस्तिष्क में और हम उसे पूर्ति करने को निकल पड़ते हैं , बाहर |
तो ये मालिक बना बैठा शरीर का खेल है :- कुछ करो , कुछ करो और हम कुछ ना कुछ करते रहते हैं , शरीर के आदेश के अनुसार |
ये जरुरी है कि हम जोड़ से चिल्लाकर खुद से पूछें कि मुझको मिला क्या ? ये चिल्लाने की विधि है | " तूझे क्या मिला ? "
मालिक
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आदेश
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पूछो
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शरीर
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पेट भरा था , पर सामने
दोस्त ने चाट लाया और खा लिया ; और सारी रात गैस , बेचैनी
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तुझे क्या मिला ?
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दोस्त का आना :- संयोग (एक
मालिक )
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शरीर ( दूसरा मालिक ); उसका काम
है लहर मारना , शरीर का गुण है ||
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उसके आदेश को मानकर –
तुझे क्या मिला ?
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संयोग (जिसका पूर्वानुमान
नहीं लगाया जा सकता )
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पढ़ते वक़्त फोन का बजना , किसी
मेहमान का आना ; कुछ भी संयोगवश जो हमारे ध्यान को भटकाए |
तो ये संयोग का गुण है | हम संयोग
को दोषी नहीं ठहरा सकते |
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हमने संयोग के आदेश को मान
लिया – पूछो
तुझे क्या मिला ?
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समाज
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जाति नाम देखकर विवाह करना और
हमारे रिश्ते का आधार जाति निर्धारित करती है |
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हमने समाज के आदेश को मान
लिया – पूछो
तुझे क्या मिला ?
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खरगोश ने दांत काँटा , ये ख़रगोश का गुण है | हमें शिकायत करने का कोई अधिकार नहीं | खरगोश अपने गुण पर चल रहा है , हम क्यूँ चल पड़े उसके गुण पर ||
हमारी समस्या और दुःख क्या है ?
अगर हम ऊपर लिखे उदाहरणों को समझें , तो जानेंगे कि संयोग का , समाज का, शरीर का - सबका अपना गुण है और हम उनके आदेशों के पीछे , बस चल देते हैं यानी खुद को समर्पित कर देते हैं | ये एक निचले दर का समर्पण है |
और हमारी समस्या ये है कि हम मानते हैं कि ये हमने किया और यही दुःख है |
जहाँ सिर्फ मालिक ही मालिक हैं , वहां ये नौकर मानकर के बैठा है कि हम भी तो कुछ हैं और यही दुःख है |
समर्पण यानी surrender माने क्या ?
प्रचलित है कि सिर का झुकाना सरेंडर होता है | मंदिर जाकर , भगवान् की मूर्ति के आगे आदि आदि |
सिर माने अहम् | कहते हैं , अहम् को जाकर समर्पित कर दो |
अब अहम् तो कुछ होता ही नहीं , तो समर्पित क्या करेंगें ?
पर जो गलत जगह समर्पित है , वो अहम् कहलाता है | तो समर्पण मतलब , जहाँ जहाँ समर्पण करे बैठे हैं , वहां समर्पण करने से बाज आना |
तो हमने ऊपर देखा कि कैसे हम प्रकृति के (संयोग , समाज , शरीर ) इन तीनो गुणों के आदेशों पर चल देते हैं , यानि कि समर्पण कर देते हैं ; तो गलत जगह इन तीन के सामने सिर झुकाने से बाज आना ही समर्पण/ सरेंडर है | |
धनयवाद ||
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